Firecracker History: भारत में खुशी जताने का तरीका हमेशा भव्य रहा है— फिर चाहे बात शादी की हो, क्रिकेट में जीत की हो या दिवाली जैसे त्योहार की। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि भारत में पटाखों का चलन आखिर शुरू कब और कैसे हुआ? क्या वाकई मुगल इस परंपरा को लेकर आए थे या इसकी जड़ें इससे भी पहले की हैं? आइए जानते हैं पटाखों के इतिहास से जुड़ी दिलचस्प बातें।
मुगलों से पहले भारत जानता था आग का जादू
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में दो हजार साल पहले भी लोग आग और रोशनी पैदा करने वाले यंत्रों से परिचित थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में एक ऐसे चूर्ण का उल्लेख है जो तेजी से जलकर तेज लपटें उत्पन्न करता था। हालांकि, उस समय इसका इस्तेमाल सिर्फ दीयों या प्रकाश के लिए होता था, न कि पटाखों के रूप में।
चीन से आई आतिशबाज़ी की परंपरा
इतिहासकारों के अनुसार, पटाखे जलाने की परंपरा चीन से शुरू हुई। वहां यह विश्वास था कि तेज़ आवाज़ से बुरी आत्माएं भागती हैं। संभवतः एक बंगाली बौद्ध गुरु दीपांकर आतिश इस परंपरा को भारत लेकर आए।
मुगलों के दौर में बढ़ा पटाखों का चलन
हालांकि पटाखों की शुरुआत भारत में पहले ही हो चुकी थी, लेकिन मुगलों के शासनकाल में इसका प्रयोग अधिक हुआ। फरिश्ता की किताब तारीख-ए-फरिश्ता में उल्लेख है कि 1258 में दिल्ली में पहली बार बड़े स्तर पर आतिशबाज़ी की गई थी।
इतिहासकार डॉ. कैथरीन बटलर स्कोफील्ड का कहना है कि शाहजहां और औरंगज़ेब के दौर में विवाह, शब-ए-बारात, राज्याभिषेक और जन्मदिन जैसे मौकों पर पटाखों का जमकर इस्तेमाल होता था।
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दिवाली पर पटाखों की शुरुआत शायद मुगलों ने ही की
इतिहासकार अबुल फज़ल की किताब आईन-ए-अकबरी में उल्लेख है कि अकबर प्रकाश और आग को “दैवीय उपासना” मानते थे। यही वह दौर था जब दिवाली में आतिशबाज़ी का चलन बढ़ा और यह त्यौहार आज जिस भव्य रूप में मनाया जाता है, उसकी नींव रखी गई। (Firecracker History)
18वीं सदी तक आतिशबाज़ी बनी हर त्योहार की पहचान
18वीं-19वीं शताब्दी तक बंगाल और अवध के नवाबों ने दुर्गा पूजा और दिवाली के दौरान आतिशबाज़ी को प्रोत्साहन दिया। लखनऊ और मुर्शिदाबाद की कई ऐतिहासिक पेंटिंग्स में दिवाली की आतिशबाज़ी को दर्शाया गया है, जिससे पता चलता है कि यह परंपरा कितनी गहराई तक भारतीय संस्कृति में बस गई थी।
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